राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की दो पंक्तियॉं क्षत्रिय समाज के बारे में कितनी प्रासंगिक हैं । जब कभी मैं राजपूत समाज के बारे में सोचता हूूॅ तो ये पंक्तियॉं मेरी मन की आखों के सामने बिजली की तरह कौंध जाती हें ।
‘‘ कौन थे? क्या हो गए है, और क्या होंगे अभी
आओं विचारें, आज मिलकर ये समस्याएं सभी’’ ।
हमारा स्वर्णिम इतिहास था । आज की स्थिति चिन्तनीय एवं दयनीय है । और यदि समय के प्रभाव को समझ कर अपनी सोच और कार्यषैली में परिवर्तन नही किया तो स्थिति बद से बदतर होने का अन्देषा हे । राजपूत शब्द ‘‘राजपुत्र’’ का अपभ्रंष माना जाता है जिसका अर्थ है ‘‘राजा का बेटा’’ कुछ इतिहासकारों का मत हे कि राजपूत “शब्द का प्रयोग पहली बार छठी “शताब्दी में उस जाति विशेष के लिए प्रयोग हुआ जो अपनी वीरता और बल के आधार पर अपना राज्य स्थापित कर चुकी थी। कुछ लोगों का मानना है कि वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ग के वो लोग जो अपना राज्य स्थापित करने में सफल हो गए थे उनकी सन्तानों ने अपने लिए राजपूत सम्बोधन को पसन्द किया क्योंकि वो राजा के पुत्र थे। जिस प्रकार आर्यो के मूल एवं आगमन पर अनेक मत हैं उसी प्रकार इतिहासकारों ने राजपूतों के बारे में भी विभिन्न मत व्यक्त किए हैं। मैं इस विवाद में न जाते हुए इस जाति के उपलब्ध इतिहास एवं साहित्य के आधार पर अपने पूर्वजों के बारे तथा उनमें वर्तमान एवं भविष्य के बारे चर्चा करुंगा।
‘रामचरित मानस’ एवं ‘गीता’ ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका जिक्र हमारे देश का हर प्रबुद्ध नागरिक करता है। इन दोनों ग्रन्थों के महानायक राम और कृष्ण क्षत्रियों के दो प्रमुख कुलों के राजा थे। राजपूतों में सूर्यवंष एवं चन्द्रवंश प्रमुख माने जाते है तथा इसके पश्चात् माउंट आबू पर हुए यज्ञ द्वारा उत्पन्न अग्निकुल का जिक्र आता है। सूर्यवंश का राज्य इक्ष्कवाकु से “शुरु होकर रामजी तक चर्मोत्कर्षं तक पहुंचा उसी प्रकार चन्द्रवंश का राज्य ययाति से लेकर कृष्ण जी तक विश्वविख्यात हुआ। यदि यह कहा जाए कि इन दोनों महानायकों @ अवतारों के बाद आधुनिक युग में महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर एवं गुरु नानक देव तथा गुरु जम्बेश्वर भी क्षत्रिय कुल में ही पैदा हुए तो यह तथ्यों के विरुद्व नहीं होगा। इसी प्रकार वीरों की श्रृंखला में चाहे वो राणा सांगा हों या महाराणा प्रताप, शिवाजी हों या बन्दा वीर वैरागी सभी क्षत्रिय कुल से सम्बन्ध रखते थे । मीरा बाई का नाम भक्तों की श्रेणी मेें शिखर पर आता है। अनेक वीरों एवं वीरांगनाओं की कथाएं हमारे इतिहास में भरी पड़ी हैं जिनके सुनने मात्र से समाज के हर व्यक्ति का सीना गौरव से फूला नहीं समाता। छठी “शताब्दी से नौवीं “शताब्दी तक राजपूतों का अधिपत्य पूरे उत्तरी भारत पर रहा। कुछ समय ऐसा आया जिसमें अपने राज्यों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने या बचाने के लिए राजपूत रजवाड़ों ने आपस में लड़ना “शुरु कर दिया । आत्मसम्मान जैसा गुण अहं जैसे अवगुण की श्रेणी में पहुंच गया और इस दुर्गण से राज्यों की हानि तो हुई ही इन्हें अहंकारी तथा आपस में इर्ष्या-द्वेश की बदनामी भी हाथ लगी।
1947 में देश आजाद हुआ, प्रजातंत्र की स्थापना हुई, छोटी बड़ी रियासतों का विलय हुआ और भारतवर्ष एक बड़ें गणतंत्र के रूप मेंं उभरा। रियासतों के खत्म हो जाने के बाद समाज का एक बहुत बड़ा तबका निराश एवं हताश हो गया। और आम आदमी को लगा कि जैसे समाज के साधन सत्ता सम्मान सब कुछ चला गया । क्योंकि अधिकतर राजपूतों के पास जमीनों की जोत अच्छी थी जिसके कारण वो शिक्षा व राजनीति के प्रति उदासीन रहे, लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया और जमीनें बटवारे के कारण घटती चली गई। शिक्षा की कमी एवं राजनीति में प्रभाव न होने की वजह से नौकरियों में हिस्सेदारी नहीं मिली। आज के दिन जब समाज के लोगों से बात होती है तो सब एक ही बात कहते है कि हमें कोई पूछता नहीं, हमारी कोई राज्य में हिस्सेदारी नहीं, हमें बदलते परिवेश में ‘युगधर्म’ को पहचानना होगा। आज का युग सिर कटाने का नहीं सिर दिखाने का है। जब दूसरे लोग अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हुए हैं हम संकीर्ण सोच नहीं छोड़ पा रहे हैं, यह राजपूत ऊंचा है यह नीचा है, वह छोटा है वह बड़ा है, वह “शुद्ध नस्ल का है वह “शुद्ध नस्लका नहीं है । इस रूढ़ीवादी और बासी सोच ने हमें कमजोर बना दिया है। दूसरे लोगों में राजनैतिक चेतना का जो स्तर है हम उसके आसपास भी नहीं। दूसरे लोग हमारे स्वभाव की कमजोरी समझ कर हमें अपने ही लोगों के विरुद्ध ‘जयचन्द’ बनाने में कामयाब हो जाते है और उसका परिणाम यह होता है कि हम अपनी आदमी के द्वारा दिए गए आदर को नकार के दूसरों की चाल में आ जाते है अैार अपनो का ‘सिरहाना छोड़कर दूसरों की पैंतों बैठने में गौरवान्वित महसूस करते हैं।
अब समय आगया है कि हम स्त्री शिक्षा के महत्व को समझें और लड़कियों को अवश्य पढ़ायें क्योंकि लड़कियों को पढ़ाने से दो घरों को सुधार होता है। इसके अतिरिक्त तकनीकी शिक्षा पर जोर दें क्योंकि आर्थिक स्थिति तभी ठीक हो पाएगी जब हमारे बच्चे पढ़ लिखकर या तो स्वरोजगार चलायेंगे या अपनी अपनी शिक्षा के बल पर अच्छी नौकरी प्राप्त करेगें । और सबसे महत्वपूर्ण कार्य अपने आपको संगठित करना होगा ताकि फिर से हम समाज में सम्मान के साथ अपना सिर ऊंचा करके जी सकें। युवा पीढ़ी को विशेष रुप से व्यसनों के दूर रहकर आधुनिक सोच में ढ़लना होगा। क्रियाशीलता को अपनाना होगा, तभी हम अपनी हिस्सेदारी प्राप्त कर सकेंगे।
आईये संकल्प लें कि शिक्षा, रोजगार और संगठन के मूल मंत्र को अपना कर समाज में अपना स्थान वही बनायेगेंं जो आज से हजारों साल पहले था । सारे समाज को नेतृत्व दें, अन्याय के खिलाफ लड़ें तभी हम राजपूत कहलाने के अधिकारी होंगे ।
इतिहास वर्तमान एवं भविष्य एक ही श्रृंखला की कड़ी हैं इतिहास मेंं जो अच्छा हुआ उससे हम प्रेरणा ले सकते हैं और जो भूल हुईं हैं उन्हें हम न दोहराने का संकल्प ले तथा अपनी वर्तमान परिस्थितियो का आकलन करते हुए अपने अच्छे भविष्य के लिए अपने कत्र्तव्य कर्म का निर्धारण करेंं। केवल इतिहास की गौरव गाथा गाने से या जो चला गया उस पर विलाप करने से कुछ नहीं होने वाला है । इस बदलते परिवेश में शिक्षा रोजगार के अवसर तथा संगठन पर जोर देना होगा । नशा, दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों से बचना होगा तथा प्रजातांंत्रिक व्यवस्था में अपनी भागीदारी और हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी होगी । वीरता, देशभक्ति, त्याग एवं न्यायप्रियता जैसे क्षत्रियोचित गुणों को संजोये हुए आगे बढ़ना होगा परन्तु तलवार की बजाय कलम से और सिर कटाने की बजाय सिर दिखाने से अपनी लक्ष्य की प्राप्ति करनी होगी ।
हुकम सिंह राणा, आई॰ ए॰ एस॰ रिटा॰
वाईस चैयरमैन आलॅ इंडिया क्षत्रिय फेडरेशन
‘‘ कौन थे? क्या हो गए है, और क्या होंगे अभी
आओं विचारें, आज मिलकर ये समस्याएं सभी’’ ।
हमारा स्वर्णिम इतिहास था । आज की स्थिति चिन्तनीय एवं दयनीय है । और यदि समय के प्रभाव को समझ कर अपनी सोच और कार्यषैली में परिवर्तन नही किया तो स्थिति बद से बदतर होने का अन्देषा हे । राजपूत शब्द ‘‘राजपुत्र’’ का अपभ्रंष माना जाता है जिसका अर्थ है ‘‘राजा का बेटा’’ कुछ इतिहासकारों का मत हे कि राजपूत “शब्द का प्रयोग पहली बार छठी “शताब्दी में उस जाति विशेष के लिए प्रयोग हुआ जो अपनी वीरता और बल के आधार पर अपना राज्य स्थापित कर चुकी थी। कुछ लोगों का मानना है कि वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ग के वो लोग जो अपना राज्य स्थापित करने में सफल हो गए थे उनकी सन्तानों ने अपने लिए राजपूत सम्बोधन को पसन्द किया क्योंकि वो राजा के पुत्र थे। जिस प्रकार आर्यो के मूल एवं आगमन पर अनेक मत हैं उसी प्रकार इतिहासकारों ने राजपूतों के बारे में भी विभिन्न मत व्यक्त किए हैं। मैं इस विवाद में न जाते हुए इस जाति के उपलब्ध इतिहास एवं साहित्य के आधार पर अपने पूर्वजों के बारे तथा उनमें वर्तमान एवं भविष्य के बारे चर्चा करुंगा।
‘रामचरित मानस’ एवं ‘गीता’ ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका जिक्र हमारे देश का हर प्रबुद्ध नागरिक करता है। इन दोनों ग्रन्थों के महानायक राम और कृष्ण क्षत्रियों के दो प्रमुख कुलों के राजा थे। राजपूतों में सूर्यवंष एवं चन्द्रवंश प्रमुख माने जाते है तथा इसके पश्चात् माउंट आबू पर हुए यज्ञ द्वारा उत्पन्न अग्निकुल का जिक्र आता है। सूर्यवंश का राज्य इक्ष्कवाकु से “शुरु होकर रामजी तक चर्मोत्कर्षं तक पहुंचा उसी प्रकार चन्द्रवंश का राज्य ययाति से लेकर कृष्ण जी तक विश्वविख्यात हुआ। यदि यह कहा जाए कि इन दोनों महानायकों @ अवतारों के बाद आधुनिक युग में महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर एवं गुरु नानक देव तथा गुरु जम्बेश्वर भी क्षत्रिय कुल में ही पैदा हुए तो यह तथ्यों के विरुद्व नहीं होगा। इसी प्रकार वीरों की श्रृंखला में चाहे वो राणा सांगा हों या महाराणा प्रताप, शिवाजी हों या बन्दा वीर वैरागी सभी क्षत्रिय कुल से सम्बन्ध रखते थे । मीरा बाई का नाम भक्तों की श्रेणी मेें शिखर पर आता है। अनेक वीरों एवं वीरांगनाओं की कथाएं हमारे इतिहास में भरी पड़ी हैं जिनके सुनने मात्र से समाज के हर व्यक्ति का सीना गौरव से फूला नहीं समाता। छठी “शताब्दी से नौवीं “शताब्दी तक राजपूतों का अधिपत्य पूरे उत्तरी भारत पर रहा। कुछ समय ऐसा आया जिसमें अपने राज्यों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने या बचाने के लिए राजपूत रजवाड़ों ने आपस में लड़ना “शुरु कर दिया । आत्मसम्मान जैसा गुण अहं जैसे अवगुण की श्रेणी में पहुंच गया और इस दुर्गण से राज्यों की हानि तो हुई ही इन्हें अहंकारी तथा आपस में इर्ष्या-द्वेश की बदनामी भी हाथ लगी।
1947 में देश आजाद हुआ, प्रजातंत्र की स्थापना हुई, छोटी बड़ी रियासतों का विलय हुआ और भारतवर्ष एक बड़ें गणतंत्र के रूप मेंं उभरा। रियासतों के खत्म हो जाने के बाद समाज का एक बहुत बड़ा तबका निराश एवं हताश हो गया। और आम आदमी को लगा कि जैसे समाज के साधन सत्ता सम्मान सब कुछ चला गया । क्योंकि अधिकतर राजपूतों के पास जमीनों की जोत अच्छी थी जिसके कारण वो शिक्षा व राजनीति के प्रति उदासीन रहे, लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया और जमीनें बटवारे के कारण घटती चली गई। शिक्षा की कमी एवं राजनीति में प्रभाव न होने की वजह से नौकरियों में हिस्सेदारी नहीं मिली। आज के दिन जब समाज के लोगों से बात होती है तो सब एक ही बात कहते है कि हमें कोई पूछता नहीं, हमारी कोई राज्य में हिस्सेदारी नहीं, हमें बदलते परिवेश में ‘युगधर्म’ को पहचानना होगा। आज का युग सिर कटाने का नहीं सिर दिखाने का है। जब दूसरे लोग अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हुए हैं हम संकीर्ण सोच नहीं छोड़ पा रहे हैं, यह राजपूत ऊंचा है यह नीचा है, वह छोटा है वह बड़ा है, वह “शुद्ध नस्ल का है वह “शुद्ध नस्लका नहीं है । इस रूढ़ीवादी और बासी सोच ने हमें कमजोर बना दिया है। दूसरे लोगों में राजनैतिक चेतना का जो स्तर है हम उसके आसपास भी नहीं। दूसरे लोग हमारे स्वभाव की कमजोरी समझ कर हमें अपने ही लोगों के विरुद्ध ‘जयचन्द’ बनाने में कामयाब हो जाते है और उसका परिणाम यह होता है कि हम अपनी आदमी के द्वारा दिए गए आदर को नकार के दूसरों की चाल में आ जाते है अैार अपनो का ‘सिरहाना छोड़कर दूसरों की पैंतों बैठने में गौरवान्वित महसूस करते हैं।
अब समय आगया है कि हम स्त्री शिक्षा के महत्व को समझें और लड़कियों को अवश्य पढ़ायें क्योंकि लड़कियों को पढ़ाने से दो घरों को सुधार होता है। इसके अतिरिक्त तकनीकी शिक्षा पर जोर दें क्योंकि आर्थिक स्थिति तभी ठीक हो पाएगी जब हमारे बच्चे पढ़ लिखकर या तो स्वरोजगार चलायेंगे या अपनी अपनी शिक्षा के बल पर अच्छी नौकरी प्राप्त करेगें । और सबसे महत्वपूर्ण कार्य अपने आपको संगठित करना होगा ताकि फिर से हम समाज में सम्मान के साथ अपना सिर ऊंचा करके जी सकें। युवा पीढ़ी को विशेष रुप से व्यसनों के दूर रहकर आधुनिक सोच में ढ़लना होगा। क्रियाशीलता को अपनाना होगा, तभी हम अपनी हिस्सेदारी प्राप्त कर सकेंगे।
आईये संकल्प लें कि शिक्षा, रोजगार और संगठन के मूल मंत्र को अपना कर समाज में अपना स्थान वही बनायेगेंं जो आज से हजारों साल पहले था । सारे समाज को नेतृत्व दें, अन्याय के खिलाफ लड़ें तभी हम राजपूत कहलाने के अधिकारी होंगे ।
इतिहास वर्तमान एवं भविष्य एक ही श्रृंखला की कड़ी हैं इतिहास मेंं जो अच्छा हुआ उससे हम प्रेरणा ले सकते हैं और जो भूल हुईं हैं उन्हें हम न दोहराने का संकल्प ले तथा अपनी वर्तमान परिस्थितियो का आकलन करते हुए अपने अच्छे भविष्य के लिए अपने कत्र्तव्य कर्म का निर्धारण करेंं। केवल इतिहास की गौरव गाथा गाने से या जो चला गया उस पर विलाप करने से कुछ नहीं होने वाला है । इस बदलते परिवेश में शिक्षा रोजगार के अवसर तथा संगठन पर जोर देना होगा । नशा, दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों से बचना होगा तथा प्रजातांंत्रिक व्यवस्था में अपनी भागीदारी और हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी होगी । वीरता, देशभक्ति, त्याग एवं न्यायप्रियता जैसे क्षत्रियोचित गुणों को संजोये हुए आगे बढ़ना होगा परन्तु तलवार की बजाय कलम से और सिर कटाने की बजाय सिर दिखाने से अपनी लक्ष्य की प्राप्ति करनी होगी ।
हुकम सिंह राणा, आई॰ ए॰ एस॰ रिटा॰
वाईस चैयरमैन आलॅ इंडिया क्षत्रिय फेडरेशन
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